चिंता चिता समान और चिंतन अमृत की तरह
आयुर्वेद में दो प्रमुख प्रकार के रोग बताए गए हैं: शारीरिक रोग और मानसिक रोग। जब शरीर रोग से पीड़ित होता है, तो उसका मन पर बुरा प्रभाव पड़ता है, और जब मन रोगी होता है, तो उसका शरीर पर भी असर होता है। इसलिए, शरीर और मन का गहरा संबंध है। काम, क्रोध, लोभ, मोह, ईर्ष्या, द्वेष आदि मनोविकार हैं, जो मन के रोग हैं। इन रोगों में एक महत्वपूर्ण रोग है- चिंता।
चिंता: एक मानसिक विकार
चिंता को मन का सबसे बड़ा विकार और एक महारोग कहा जाता है। यह मनुष्य को धीरे-धीरे खोखला कर देती है, जैसे दीमक लकड़ी को खाती है। इसी कारण इसे 'चिता' समान बताया गया है, क्योंकि जैसे चिता शरीर को एक बार जलाती है, वैसे ही चिंता मनुष्य को बार-बार जलाती है।
शारीरिक रोगों की चिकित्सा वैद्य, हकीम और डॉक्टर कर देते हैं, लेकिन मानसिक रोगों का इलाज करना इन लोगों के लिए भी चुनौतीपूर्ण होता है। जब मानसिक विकारों की चिकित्सा में कोई अन्य उपाय नहीं बचता, तब धर्म और शास्त्रों की चिकित्सा सबसे प्रभावी साबित होती है।
चिंता का समाधान: चिंतन
शास्त्रों में चिंता का इलाज बताया गया है कि मनुष्य को चिंता नहीं, बल्कि चिंतन करना चाहिए। जब भी चिंता सताने लगे, तब भगवान का स्मरण और चिंतन करने से मन को शांति मिलती है। जो व्यक्ति अपनी चिंता को भगवान के हाथों में सौंप देता है, उसकी चिंता अपने आप समाप्त होने लगती है। ऐसा व्यक्ति मानसिक शांति पाता है और उसके सभी समस्याओं के समाधान भगवद्कृपा से प्राप्त होते हैं।
गीता में भी कहा गया है कि जो भक्त अपने भार को भगवान पर छोड़ देता है, उसका भार भगवान स्वयं उठाते हैं। जो व्यक्ति चिंता करता है, उसका चेहरा मुरझा जाता है, लेकिन जो परमात्मा का चिंतन करता है, उसका चेहरा हमेशा चमकता रहता है।
अभ्यास और वैराग्य से समाधान
गीता में भी यह बात स्पष्ट रूप से बताई गई है कि अभ्यास और वैराग्य के माध्यम से व्यक्ति अपने लक्ष्यों को प्राप्त कर सकता है। इसलिए, चिंता से मुक्ति पाने के लिए भगवान पर भरोसा करना और चिंतन का अभ्यास करना अत्यंत आवश्यक है। यह अभ्यास जीवन को सुखमय और शांति से परिपूर्ण बना सकता है।
निष्कर्ष यह है कि चिंता को छोड़कर यदि हम भगवान का चिंतन करते हैं और उनके प्रति अपनी निष्ठा और विश्वास रखते हैं, तो हम न केवल मानसिक शांति प्राप्त कर सकते हैं बल्कि एक सुखद और सफल जीवन भी जी सकते हैं।
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