मौलाना हसरत मोहानी: एक स्वतंत्रता सेनानी, क्रांतिकारी और कवि
मौलाना हसरत मोहानी, जिनका असली नाम सैयद फ़ज़ल-उल-हसन था, भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के उन महान सेनानियों में से एक हैं जिनका योगदान अविस्मरणीय है। उन्होंने न केवल स्वतंत्रता आंदोलन में हिस्सा लिया, बल्कि उर्दू साहित्य को भी अपनी शायरी से समृद्ध किया। उनका तखल्लुस 'हसरत' और उपनाम 'मोहानी' उनके जन्मस्थान मोहान से जुड़ा हुआ है। हसरत मोहानी को आज भी उनकी देशभक्ति, काव्य-कला, और सादगी के लिए याद किया जाता है।
प्रारंभिक जीवन और शिक्षा
मौलाना हसरत मोहानी का जन्म 1 जनवरी 1875 को ब्रिटिश भारत के उत्तर प्रदेश के उन्नाव जिले के कस्बे मोहान में हुआ था। उनके पूर्वज ईरान के निशापुर से आकर यहाँ बसे थे। उन्होंने प्रारंभिक शिक्षा कानपुर के वर्नाक्युलर मिडिल स्कूल में प्राप्त की, जहाँ उन्होंने कक्षा 8 में पूरे प्रदेश में प्रथम स्थान प्राप्त किया। गणित में उनकी विशेष रुचि थी, और उन्होंने मैट्रिक परीक्षा में गणित में प्रथम स्थान हासिल किया। इसके बाद उन्हें अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय (तत्कालीन मोहम्मडन एंग्लो-ओरिएंटल कॉलेज) में दाखिला मिला, जहाँ से उन्होंने 1903 में बीए की डिग्री प्राप्त की। हालाँकि, अपनी ब्रिटिश सरकार की आलोचना करने के कारण उन्हें कई बार कॉलेज से निष्कासित भी किया गया।
स्वतंत्रता संग्राम में भूमिका
हसरत मोहानी भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के प्रमुख योद्धाओं में से एक थे। 1904 में वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में शामिल हुए और स्वतंत्रता के लिए कई आंदोलन चलाए। वे 1921 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अहमदाबाद अधिवेशन में 'पूर्ण स्वराज' (पूर्ण स्वतंत्रता) की मांग करने वाले पहले व्यक्ति थे। उनका नारा "इंकलाब ज़िंदाबाद" आज भी भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के प्रतीक के रूप में गूंजता है।
ब्रिटिश राज का विरोध करने के कारण उन्हें कई बार जेल भी जाना पड़ा। 1903 से लेकर कई वर्षों तक वे जेल में रहे। जेल में रहते हुए भी उन्होंने अपने सिद्धांतों से समझौता नहीं किया और अपनी पत्रिका 'उर्दू-ए-मुअल्ला' के माध्यम से ब्रिटिश सरकार की नीतियों की आलोचना की।
साहित्यिक योगदान
हसरत मोहानी का साहित्यिक योगदान भी बेहद महत्वपूर्ण है। उनकी शायरी में देशभक्ति, सादगी, और प्रेम की गहरी झलक मिलती है। उन्होंने कई मशहूर ग़ज़लें लिखीं, जिनमें से 'चुपके चुपके रात दिन' उनकी सबसे प्रसिद्ध ग़ज़ल है। इसे गुलाम अली और जगजीत सिंह जैसे महान गायकों ने अपनी आवाज़ दी।
उनकी प्रमुख साहित्यिक कृतियों में 'कुल्लियात-ए-हसरत मोहानी', 'शरह-ए-कलाम-ए-ग़ालिब', 'नुकात-ए-सुखन', और 'मुशाहिदात-ए-ज़िंदान' शामिल हैं। उन्होंने उर्दू शायरी को एक नई दिशा दी और कई युवा कवियों को प्रेरित किया।
धार्मिक और राजनीतिक विचारधारा
हसरत मोहानी का जीवन बेहद सादगीपूर्ण था। उन्होंने कभी सरकारी भत्ते या सुविधाएँ स्वीकार नहीं कीं और हमेशा मस्जिदों में रहते थे। वे संसद में साझा तांगे से जाते थे और तीसरी श्रेणी की रेलगाड़ियों में यात्रा करते थे। एक बार जब उनसे पूछा गया कि वे तीसरी श्रेणी में क्यों यात्रा करते हैं, तो उन्होंने चुटकी लेते हुए कहा, "क्योंकि चौथी श्रेणी नहीं होती।"
वे एक धार्मिक मुसलमान थे और अक्सर हज के लिए मक्का जाते थे। इसके बावजूद वे हिंदू-मुस्लिम एकता के प्रबल समर्थक थे। कृष्ण के प्रति उनकी गहरी आस्था थी, और वे मथुरा में कृष्ण जन्माष्टमी मनाने जाते थे।
कम्युनिस्ट आंदोलन से जुड़ाव
मौलाना हसरत मोहानी भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के संस्थापक सदस्यों में से एक थे। 1925 में कानपुर में आयोजित पहला अखिल भारतीय कम्युनिस्ट सम्मेलन उनकी पहल पर आयोजित हुआ था। वे सोवियत समाजवादी गणराज्य संघ (USSR) के संघीय ढांचे से प्रभावित थे और भारत के लिए भी ऐसा ही संविधान चाहते थे। उन्होंने भारतीय समाज में समानता और न्याय की बात की और आज़ादी के बाद भी वे सोवियत संघ की तर्ज पर एक संघीय भारत का सपना देखते थे।
विभाजन का विरोध
हसरत मोहानी ने भारत के विभाजन का विरोध किया और स्वतंत्रता के बाद पाकिस्तान जाने की बजाय भारत में ही रहना चुना। वे भारत की संविधान सभा के सदस्य बने, लेकिन उन्होंने संविधान पर हस्ताक्षर नहीं किए। उनका मानना था कि स्वतंत्र भारत को एक सशक्त संघीय ढाँचा अपनाना चाहिए, जिसमें सभी वर्गों और समुदायों के लिए समान अधिकार हों।
मृत्यु और विरासत
13 मई 1951 को हसरत मोहानी का लखनऊ में निधन हो गया। उनके निधन के बाद भी उनकी विरासत जीवित है। उनके सम्मान में कई संस्थान, पुस्तकालय और सड़कों का नाम उनके नाम पर रखा गया है। अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में एक छात्रावास और कानपुर में एक अस्पताल का नाम भी हसरत मोहानी के नाम पर रखा गया है।
हर साल उनकी पुण्यतिथि पर भारत और पाकिस्तान में कई स्मारक कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं। कराची, पाकिस्तान में हसरत मोहानी मेमोरियल लाइब्रेरी एंड हॉल उनकी स्मृति को समर्पित है।
निष्कर्ष
मौलाना हसरत मोहानी न केवल एक महान स्वतंत्रता सेनानी थे, बल्कि एक श्रेष्ठ कवि और विचारक भी थे। उनका जीवन सादगी, समर्पण और देशभक्ति का प्रतीक है। उनकी शायरी और देश के प्रति उनके योगदान को कभी भुलाया नहीं जा सकता।
- 1 "इंकलाब ज़िंदाबाद" यह नारा हसरत मोहानी द्वारा दिया गया था, जो भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का सबसे प्रसिद्ध और प्रेरणादायक नारा बना।
- "हुकूमत-ए-मुल्की मखलूक की है, हुक्मरानी का हक आवाम का है" इस नारे से उन्होंने जनता को यह संदेश दिया कि देश की हुकूमत पर केवल जनता का अधिकार है।
- "पूर्ण स्वराज" उन्होंने 1921 में कांग्रेस अधिवेशन में सबसे पहले पूर्ण स्वतंत्रता की मांग की और यह नारा दिया।
- "समानता और न्याय का अधिकार" उनके सामाजिक न्याय और समानता के विचार इस नारे में प्रकट होते हैं, जहाँ वे सभी वर्गों के लिए बराबरी की बात करते थे।
- "हिंदू-मुस्लिम एकता ज़िंदाबाद" यह नारा हसरत मोहानी की धार्मिक सद्भावना और हिंदू-मुस्लिम एकता के प्रति उनकी आस्था को दर्शाता है।
0 Comments